उदित राज॥
जब दलित-पिछड़ा कोई काम करता है तो उसे खराब नजरों से देखा जाता है। कार्यों का मापदंड सवर्णों ने ही बनाया है। जो मान्यताएं, धंधे व काम सवर्णों के हित साधते हैं, उन्हें श्रेष्ठ और सम्मानजनक बताया गया और जो कार्य उनकी क्षमता से बाहर थे, उन्हें धर्म विरोधी ठहरा दिया गया। आज तक यह सोच कायम है। पहले नृत्य, संगीत, गायन, नाटक और चित्रकला आदि पर दलितों और पिछड़ों का वर्चस्व हुआ करता था। सवर्ण इन कलाओं को घृणा की दृष्टि से देखते थे। वे इनसे जुड़े कलाकारों को नचनिया, गवैया, भांड, ढोलबाज, नट आदि कहकर अपमानित करते थे। कलाकारों को भिखारियों का दर्जा दिया गया, लेकिन शहरी सभ्यता विकसित होने के कारण इनका भी सवर्णीकरण हुआ। सवर्णों ने इन्हें अपनी मौलिक कला बताकर पूरे विश्व मंे वाहवाही लूटी। अब इन कलाओं को सिखाने के लिए बड़े-बड़े शहरों में संस्थान, सांस्कृतिक केंद्र, कला मंडल और अकादमी स्थापित हो गए हैं, जिन पर सवर्णों का कब्जा हो गया है।
शूद्र देवदासियों को तो आज भी नफरत से देखा जाता है लेकिन सचाई यह है कि उन्होंने ही नृत्य और संगीत को बचाया। समय ने करवट ली और फिल्मों के जरिए ये कलाएं लोकप्रिय हो गईं। एक समय में दलित-आदिवासी गांव के खुली चौपाल में नाचा-गाया करते थे। उस समय उन्हें हेय समझा जाता था लेकिन आज उसी कला पर टीवी पर राष्ट्रीय प्रतियोगिता हो रही है।
आजादी के बाद लगभग तीन दशकों तक दलितों एवं पिछड़ों की भागीदारी राजनीति में नहीं के बराबर रही। यदि आरक्षण की वजह से लोग चुनकर आए भी तो उनमें से ज्यादातर गूंगे-बहरे की भूमिका निभाते रहे। पहले राजनीति सबसे अच्छा क्षेत्र माना जाता था। स्कूल में अध्यापक बच्चों से पूछते थे कि बड़े होकर क्या बनोगे, तो उन्हें सिखाते थे कि कहो नेहरू चाचा बनेंगे। समय के अनुसार परिस्थिति बदली है और ज्यादातर प्रांतों में जब सत्ता पिछड़ों के हाथ में आई है तो अब राजनीति को ही गंदा कहा जा रहा है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण की वजह से दलितों एवं पिछड़ों की भागीदारी बढ़ी है तो सारा सरकारी कामकाज ही भ्रष्ट और निकम्मा दिखने लगा है। हर तरफ से आवाज उठती है कि सरकारी विभाग भ्रष्ट और निकम्मे हो गए हैं और निजीकरण ही एक उपाय है। निजीकरण होने से सवर्णों का दबदबा फिर से हो जाएगा। शिक्षा का निजीकरण हुआ जिसमंे आधिपत्य सवर्णों का है। आज यह क्षेत्र लाभ कमाने में सबसे आगे हो गया है लेकिन क्यों नहीं इसे बदनाम किया जाता? आजादी के पहले जब सवर्णों ने ही सरकारी नौकरियों में आधिपत्य जमाया तो उन्हें गद्दार क्यों नहीं कहा गया?
आजादी के बाद देश का शासन-प्रशा सन सवर्णों के ही हाथ रहा है तो इस तरह से सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक बुनियाद की नींवउन् होंने ही डाली। भ्रष्टाचार कुछ महीनों में ही जन्म नहीं लेता है। इसे जड़ जमाने में कई वर्ष लगते हैं। नि:संदेह आज आर्थिक भ्रष्टाचार बढ़ गयाहै लेकिन इसके लिए आज के राजनेता एवं नौ करशाह उतने जिम्मेदार नहीं हैं जितने कि शुरुआती दौर वाले। जै सी बुनियाद होती है वैसे हीघर की दीवारें और छत तैयार होती है ं और यह समझना कोई मुश्किल का काम नहीं है।
समाजशास्त्री आशीष नंदी ने यही बात कही। उन्होंने कहा कि अब दलित, पिछड़े और आदिवासी ज्यादा भ्रष्ट हो रहे हैं। उन्होंेने यह नहीं कहाकि भ्रष्टाचार की बु नियाद दलितों-पिछड़ों ने डाली है। सच पूछिए तो सवर्णों के मु काबले आज भी ये भ्रष्टाचार में बहुत पीछे हैं। पिछले वर्ष 17भा रतीयों के नंबर दो के खाते विदे श में मिले और सरकार ने इनका खु लासा किया। लेकिन उनमें से एक भी दलित-आदिवासी नहीं है। लाखों करोड़ का काला धन बाहर जमा हुआ है। यह कहा जा सकता है कि दलित- आदिवासी तो उसमें शामिल ही नहीं होंगे। हो सकता है कि कुछपिछड़ ें हों, लेकिन जितनी बड़ी उनकी आबादी है उसके अनुपात में उनकी संख्या नगण्य ही होगी। यह भी दे न उसी भ्रष्टाचार संस्कृति की हैजिन्होंने इसको पनपाया। आशीष नंदी ने यह भी कहा कि भ्रष्टाचा र के तरीके अलग-अलग हैं। सिफारि श से कोई व्यक्ति अपने औलाद का दाखिला हार्वर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका में करा देता है तो उसे भ्रष्टाचार नहीं माना जाता। सवर्णों के भ्रष्टाचार पकड़ मे ं नहीं आते क्योंकि उन्हेंतमाम तरीके मालूम हैं। जेएमएम घूस का ंड मंे जो दलित-आदिवासी समाज के सांसद थे, उन्हें भ्रष्टाचार करना नहीं आता था और जो नगदपैसा उन्हें मिला उसे सीधे उन्होंने बैंक में जमा कर दिया और पकड़ लिए गए। चालाक लोग हजारों करोड़ रिश्वत लेकर भी पकड़ में नहीं आते। कावेरी गैस में 44000 करो ड़ रुपए का घोटाला है। कोई उस पर उंगली नहीं उठा रहा है। कॉ मनवेल्थ गेम्स या कोल आवंटन घो टालेमें दलित-आदिवासी तो नहीं शामिल हैं फिर भी इन्हीं को ज् यादा भ्रष्ट कहा जा रहा है। आशी ष नंदी के बयान को एक अवसर के रूप में भीलिया जा सकता है कि जैसे दिल्ली गैंगरेप पर देश में बहस चली उसी तरह से अब बहस चले कि कौन सी जाति ज्यादा भ्रष्ट है तो असलियतसामने आ जाएगी।
जब थाने की दलाली निम्न वर्ग के लोग करते हैं तो एक बड़ी चर्चा हो जाती है कि ये लोग दलाल और भ्रष्ट हैं और जब वही काम सवर् ण करें तोमाना जाता है कि उनकी पहुंच लंबी है और उसी की वजह से राहत मिली। भ्रष्टाचार के अलग- अलग ये पैमाने क्यों है उसको समझने के लिएसमाज की मानसिकता को जानना होगा। जिन क्षेत्रों में दलित-आदिवासी एवं पिछड़े नहीं हैं उन्हें अभी भी पवित्र गाय माना जाता है। सबसेज्यादा भ्रष्टाचार इस समय कहीं है तो वह है कॉरपोरेट हाउसेज में, ले किन वह लोगों की नजरों मंे नहीं आता क्योंकि उसमें निम्न जाति यों कीभागीदारी नहीं है।
हाई जुडिशरी के करप्शन को कौन नहीं जानता लेकिन उनमें बहुत ही कम भ्रष्टाचार के आरोप लगते है ं। जिस दिन उसमें दलितों,आदिवा सियों की भागीदारी होगी तो जिस तरह से नौकरशाही और राजनीति बदनाम हुई है वही हश्र इसका हो गा। अब सेना में भी भ्रष्टाचा रबहुत बढ़ गया है लेकिन लोगांे को दिखता नहीं है। मीडिया अभी भी पवित्र गाय मानी जाती है वहा ं का भ्रष्टाचार लोगांे को नहीं दिखता औरऐसा इसलिए है कि उसमें दलित- आदिवासी की भागीदारी शू न्य है। जिस दिन धार्मिक प्रति ष्ठानों मंे इनकी भागीदारी हो गई तो उस दिन वहांभी भ्रष्टाचा र दिखने लगेगा जहां कि आस्था के नाम पर सब कुछ हो रहा है।
(लेखक इंडियन जस्टिस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)
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